तमिलनाडु के दलित ईसाई संगठनों ने भारत में एक नया चर्च शुरू करने का प्रस्ताव रखा है। उनकी पीड़ा है कि कैथोलिक चर्च में दलित ईसाइयों के खिलाफ जातिवाद और भेदभाव को समाप्त करने की उनकी मांग पर ध्यान नहीं दिया जा रहा। पिछले साल 5 सितंबर 2020 काे आयोजित एक ऐसी ही बैठक में दलित कैथोलिक नेताओं ने कहा था कि अगर वेटिकन ने दलित पादरियाें की उपेक्षा करने वाले बिशप चुनने की भेदभावपूर्ण प्रक्रिया को तुरंत नहीं हटाया, तो हम अपने खुद के भारतीय दलित कैथोलिक चर्च या भारतीय दलित कैथोलिक संस्कार (संप्रदाय) की घोषणा कर सकते हैं।
इस विचार को लागू करने के लिए इसी साल 4 अगस्त को एक प्रस्ताव रखा गया था, कि नवगठित भारतीय दलित कैथोलिक संस्कार (संप्रदाय) वेटिकन या पोप के प्रत्यक्ष शासन के तहत ही कार्य करेगा। लेकिन इसके पहले नेशनल कौंसिल ऑफ दलित क्रिश्चियन (NCDC) के संयोजक, फ्रैंकलिन सीजर थॉमस ने कहा था, कि “नया चर्च भारतीय कैथोलिक चर्च के जातिवादी नेतृत्व से दलित कैथोलिक ईसाइयों को अलग करेगा।”
अब स्वाभाविक रूप से सवाल उठता है कि अगर वर्तमान में वेटिकन भारतीय कैथोलिक चर्च में सुधार करने और उसे मानवतावादी विचारधारा में ढालने में विफल रहा है, तो क्यों न उसे कराेड़ाें धर्मान्तरित ईसाइयों की आस्था से विश्वासघात करने के लिए कटघरे में खड़ा किया जाए। ईसाइयत जब हर प्रकार के भेदभाव, जाति और नस्ल काे नकारते हुए मसीहियत में सभी काे समान मानती है तो फिर भारत में वेटिकन के नेतृत्व में दलित चर्च क्यों बनाया जाए ? कहीं ऐसा तो नहीं कि हिंदू दलितों में अपना प्रभाव बढ़ाने के लिए इस कार्य योजना काे आगे बढ़ाया जा रहा है।
स्वाभाविक है कि जब नवगठित भारतीय दलित कैथोलिक पोप के प्रत्यक्ष शासन के तहत ही कार्य करेगा, तो उसे खड़ा करने में वेटिकन निवेश भी करेगा। नया संगठनात्मक ढांचा, नए चर्च, डायसिस और कई तरह के सामाजिक -अनुसंधान संगठन बनाने का भी काम करेगा। जाहिर है कि इसमें पादरियों और बिशप की नियुक्ति भी सीधे तौर पर वेटिकन के पास ही रहेगी। फिर क्यों न माैजूदा कैथोलिक चर्च में डाइवर्सिटी काे लागू कर धर्मान्तरित ईसाइयों काे उचित भागीदारी दी जाए।
दलित कैथोलिक चर्च का विचार दलित ईसाइयों के साथ किसी विश्वासघात से कम नहीं है, जिसका लाभ कम नुकसान ज्यादा दिखाई दे रहा है। अगर भविष्य में कभी किसी षड्यंत्र के तहत ऐसा हाेता है ताे उस से धर्मान्तरित ईसाइयों काे क्या लाभ ? कैथोलिक चर्च में दलित ईसाइयों की संख्या 50 प्रतिशत से भी ज्यादा है, इसलिए यह दलित चर्च ही है। भारत में सदियों से ऊंच-नीच, असमानता और भेदभाव का शिकार और सामाजिक हाशिए पर खड़े करोड़ों दलितों ने चर्च / क्रूस को चुना है लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि चर्च उनके जीवन स्तर को सुधारने की जगह अपने साम्राज्यवाद के विस्तार में व्यस्त है।
कैथोलिक चर्च के विशाल संसाधनों का लाभ दलित ईसाई इसलिए नहीं उठा पा रहे, क्योंकि वह चर्च के चक्रव्यूह में फँस गए हैं। ईसाई समाज में सामाजिक आंदोलन नहीं के बराबर है। धर्मान्तरित ईसाई पिछली कई शताब्दियों से चर्च के लिए अपना खून -पसीना बहा रहे हैं, और बदले में चर्च नेतृत्व से उन्हें मिला क्या? एक षड्यंत्र के तहत कैथोलिक बिशप कॉन्फ्रेंस ऑफ इंडिया और नेशनल काउंसिल फार चर्चेज इन इंडिया ने वर्ल्ड चर्च काउंसिल, वेटिकन और कई अंतरराष्ट्रीय मिशनरी संगठनों के सहयोग से पिछले पचास वर्षों से धर्मान्तरित ईसाइयों काे अनुसूचित जातियों की सूची में शामिल करवाने का तथाकथित आंदोलन चला रखा है।
एक तरफ वह हिंदू दलितों काे अपने बाड़े में ला रहे हैं, वहीं दूसरी तरफ वह इनके ईसाइयत में आते ही उन्हें दोबारा हिंदू दलितों की सूची में शामिल करने की मांग करने लगते हैं, अगर उन्हें अनुसूचित जातियों की श्रेणी में ही रखना है तो फिर यह धर्मांतरण के नाम पर ऐसी धोखाधड़ी क्यों ? आधे से ज्यादा अपने अनुयायियों को अनुसूचित जातियों की श्रेणी में रखवा कर वह इनके विकास की ज़िम्मेदारी सरकार पर डालते हुए हिन्दू दलितों को ईसाइयत का जाम पिलाने का ताना-बाना बुनने में लगे हुए हैं।
कैथोलिक बिशप कॉन्फ्रेंस ऑफ इंडिया और नेशनल काउंसिल फार चर्चेज इन इंडिया के इस एजेंडे का खुला समर्थन कांग्रेस, वामपंथी, उतर और दक्षिण भारत की कई राजनीतिक पार्टियां करती है। वह समय – समय पर चर्च की इस मांग काे हवा देते रहते हैं और बदले में दलित ईसाइयों का वोट उन्हें थोक में मिलता रहता है। इस पूरे मामले में चर्च और समर्थन करने वाले राजनीतिक दल फायदे में हैं, नुकसान केवल दलित ईसाइयों का हो रहा है। चर्च के इस एक ऐजडें के चलते ईसाइयत में काेई सुधारवादी आंदोलन खड़ा नहीं हो पा रहा। यहां तक कि धर्मान्तरित ईसाइयों की हर समस्या का इसे एकमेव हल बताया जा रहा है।
यह सच है कि वे इन समुदायों की जातिवादी व्यवस्था से विद्रोह कर ईसाइयत में आए हैं, लेकिन उससे भी बड़ा सच यह है कि वर्तमान में उनका गैर-ईसाई दलितों के साथ कोई खास रिश्ता नहीं रहा। यहां तक कि उनकी पूजा-पद्धति, प्रतीक, रहन-सहन और जीवन जीने का ढंग सब बदल गया है। उनकी समस्याओं और तकलीफों को गैर-ईसाई दलितों के समान नहीं देखा जा सकता।
कैथोलिक चर्च ने 2016 में अपने ‘पॉलिसी ऑफ दलित एम्पावरमेंट इन द कैथोलिक चर्च इन इंडिया’ रिपोर्ट में यह माना, कि चर्च में दलितों से छुआछूत और भेदभाव बड़े पैमाने पर मौजूद है इसे जल्द से जल्द खत्म किए जाने की जरूरत है। हालांकि इसकी यह स्वीकारोक्ति नई बोतल में पुरानी शराब भरने जैसी ही है। क्योंकि यहां भी वह इसका एकमेव हल धर्मान्तरित ईसाइयों काे हिंदू दलितों की श्रेणी में रखने काे ही मानता है।
दरअसल पिछले सात दशक से चर्च ने धर्मान्तरित ईसाइयों के लिए विकास का कोई मॉडल ही नहीं अपनाया, उसने उन्हें अपने साम्राज्यवाद के विस्तार में औज़ार की तरह इस्तेमाल किया है। आज ईसाई युवाओं में सामाजिक एवं राजनीतिक मामलों काे लेकर काेई जागरूकता नहीं है। चर्च लीडर युवाओं के बीच सामाजिक एवं राजनीतिक दर्शन काे नहीं रख पा रहे है, केवल चर्च दर्शन से अवगत करा रहे है। इस कारण ही बड़ी संख्या में ईसाई युवा स्वतंत्र धार्मिक प्रचारक बन रहे हैं।
इस कारण तेजी से छाेटे – छाेटे चर्च भी खड़े हो रहे हैं, ऐसे छाेटे- छाेटे स्वतंत्र चर्चो के पीछे एक पूरा अंतरराष्ट्रीय नेटवर्क काम करता है, हाल ही में उत्तर प्रदेश के ग्रामीण इलाकों के अधिकतर चर्च तनाव के चलते बंद हाे गए थे या करवा दिए गए, इन बंद कराए गए चर्चों को दोबारा खुलवाने के लिए अमेरिकी दूतावास आगे आया और उसने बंद पड़े सभी चर्च फिर से खुलवा दिए। स्वतंत्र चर्च कुकुरमुत्ते की तरह उगते जा रहे हैं।
इनमें प्रचार करने के लिए अंतरराष्ट्रीय ईसाई संगठन बड़ी संख्या में विदेशी नागरिकों विशेषकर युवाओं काे भेजते हैं जिसका स्थानीय कलीसिया पर गहरा प्रभाव पड़ता है। विदेश से आने वाले अनेक भारत काे ही अपनी कर्मभूमि मानकर यही रह जाते हैं। ओडिशा के ग्राहम स्टेंस और ग्लैडिस स्टेंस भी ऐसे ही मिशनरी थे (ग्राहम स्टेंस और उसके बच्चों के साथ जो अमानवीय कृत्य हुआ उसकी काेई भी सभ्य समाज इजाज़त नहीं देता ) श्रीमती ग्लैडिस स्टेंस अपने अनुभव में लिखती हैं कि 1981 में ऑपरेशन मोबिलाइजेशन के तहत जब वह पंजाब, बिहार, ओडिशा की गाँव – गाँव की यात्रा कर रही थी, तभी ओडिशा में उनकी मुलाकात ग्राहम स्टेंस से हुई थी, हालांकि ऑस्ट्रेलिया में उन दोनों के घर तीस कि.मी. की दूरी पर ही थे, पर वह वहां कभी नहीं मिले थे।
भारत में जिस तेजी से छाेटे – छाेटे चर्च खड़े किए जा रहे हैं, वह कुछ- कुछ चीनी मॉडल जैसा ही है। चीन में ईसाई धर्म प्रचार करने पर पाबंदी है, वहां बड़े चर्च सरकारी नियंत्रण में काम करते है। ऐसे चर्च धर्म परिवर्तन पर काेई जोर नहीं देते। अपना संख्या बल बढ़ाने के मकसद से मिशनरी सरकार से छिप कर घर कलीसियाएं चलाते है।
परंतु भारत में ऐसी काेई बात नहीं हैं, यहाँ मेन-लाइन के लाखाें चर्च है। जिन्हें धर्म प्रचार करने, अंतरराष्ट्रीय मिशनरियों से जुड़े रहने व सहायता पाने और देश में अपने संस्थान चलाने की पूरी स्वतंत्रता है। इसके बावजूद अगर स्वतंत्र चर्च कुकुरमुत्ते की तरह उगते जा रहे हैं, तो इस पर अवश्य ही विचार करने की जरूरत है। क्योंकि यह भारतीय ईसाइयों के हित्त में भी नहीं हैं।
भारतीय दलित कैथोलिक चर्च का विचार दलित ईसाइयों की संघर्ष क्षमता काे ही कम करेगा। अलग चर्च क्यों बनाया जाए, पलायन का रास्ता क्यों ? जबकि वर्तमान में उनकी संख्या ज्यादा है, अलग चर्च बनाने से होगा क्या ? घूम फिर कर नया चर्च भी अपनी संख्या बल बढ़ाने के खेल में लग जाएगा।
जहां तक दलित ईसाइयों को अनुसूचित जाति का दर्जा देने का सवाल है, इस पर आज के दिन भारतीय राजनीति में कोई सुगबुगाहट नहीं है। देश के उच्चतम न्यायालय ने इस मुद्दे को केंद्र सरकार पर छोड़ दिया है। जाति के आधार पर ईसाइयों को नहीं बाँटा जाना चाहिए, बल्कि उनके कल्याण के लिए ऐसे समाधान खोजे जाएं जिनमें जाति-विहीन सिद्धांत का आधार तो बना ही रहे, आर्थिक रूप से पिछड़े ईसाइयों को भी लाभ हो। इसके लिए चर्च अपने विशेष अधिकारों के तहत चलाए जा रहे संस्थानों में डायवर्सिटी को लागू करे।