संसार में हर प्राणी की इच्छा मोक्ष प्राप्ति है ! इसलिए इस की पात्रता भी जानना जरूरी है क्योंकि बिना जाने उसके लिए प्रयास कैसे किया जा सकता है ! मोक्ष का अर्थ है जन्म मृत्यु के आवागमन से मुक्ति तथा परमब्रह्म में विलीन होना ! यह एक अटल सत्य है कि एक जैसे तत्व ही एक दूसरे में विलय हो सकते हैं, ईश्वर जिसे परम ब्रह्म भी कहा जाता है वह निर्गुण तथा सम स्थिति में है अर्थात काम क्रोध लोभ मोह अहंकार से मुक्त ! और यदि प्राणी उस में विलीन होना चाहता है तो उसे भी इसी स्थिति में आना पड़ेगा तब वह मोक्ष का पात्र बन कर उसको प्राप्त कर सकता है ! इसलिए संसार में हर धर्म और समुदाय ने किसी न किसी रूप में मनुष्य को ईश्वर प्राप्ति के लिए उपरोक्त बुराइयों से मुक्त होने का ही उपदेश दिया है !
मानस में भगवान राम ने स्वयं कहा है कि-- छेल छीदर मोहि कपाट न भावा ! निर्मल मन तेही मोहे जन पावा!! इसी की पुष्टि भगवान कृष्ण ने गीता में की है ! सनातन धर्म में जीवन को व्यवस्थित करने के लिए उसे चार भागों में बांटा गया है ! जिसमें ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और सन्यास मुख्य है! आज के आधुनिक युग में 60 वर्ष की आयु तक मनुष्य अपने गृहस्थ के दायित्व को पूरा कर सकता है ! इसके बाद उसे संसार से मुक्त होने का प्रयास करना चाहिए ! जिसके लिए 60 वर्ष की आयु के बाद उसका वानप्रस्थ शुरू हो जाता है ! जीवन के इस समय में उसे संसार की बुराइयों से दूर होने का प्रयास करना चाहिए जिससे वह अपने अंदर विद्यमान काम क्रोध मोक्ष इत्यादि से मुक्त हो सके ! इसके लिए उसे पतंजलि के अष्टांग योग का सहारा लेना चाहिए ! यदि वह इसके पहले दो कदम यानी यम-- सत्य अहिंसा ब्रह्मचर्य असते और अपरिग्रह तथा नियम-- शॉच संतोष त प स्वाध्याय तथा ईश्वर प्राणी धान को अपनाना चाहिए इसमें अपरिग्रह से तात्पर्य है आवश्यकता से ज्यादा भंडारण न करना और असते से है किसी प्रकार की चोरी न करनाइन दोनों कदमों से उसकी मानसिक दूर होजाएंगी और वह परम शांति तथा सम स्थिति का अनुभव करेगा ! जिसमें कोई कामना डर या भय नहीं रहेगा ! यदि यह स्थिति स्थाई रूप से प्राप्त हो जाती है तो मनुष्य को यह आभास हो जाना चाहिए कि वह मोक्ष का पात्र बन गया है और अब उसे परमब्रह्म अपने आप में विलीन करके परम शांति प्रदान करेंगे ! इसी को मोक्ष का आभास भी कहा जाता है!