गीता का मुख्य उद्देश्य मनुष्य को उसके नियत कर्मों से अवगत कराना है ! जिससे इन को पूरा करने के बाद उसके जीवन का उद्देश्य पूरा हो सके और आत्मा नियत कर्मों को पूरा करके सांसारिक जीवन मरण के चक्कर से मुक्त हो सके ! भगवान कृष्ण के अनुसार नियत कर्म तीन प्रकार के होते हैं, पहला स्वयं के प्रति, दूसरा परिवार तथा तीसरा समाज के लिए ! एक जीव को विभिन्न योनियों में घूमने के बाद ईश्वर उसे मनुष्य योनि प्रदान करता है इसके पीछे ईश्वर का उद्देश होता है की मनुष्य अपने विवेक के द्वारा अपने कर्म बंधन से मुक्त होकर वापस आत्मा रूपी ईश्वर का अंश वापस उसके परम स्थान ईश्वर में विलीन हो सके !इसी को मोक्ष और मुक्ति पुकारा जाता है !
स्वयं के प्रति नियत कर्मों से तात्पर्य है कि वह प्रकृति के रजो और तमो गुणों के प्रभाव में स्वार्थ अहंकार और काम क्रोध रूपी अबगुणों के द्वारा पाप कर्मो में लिप्त ना होकर अपनी आत्मिक उन्नति के लिए सतगुड अपनाकर अपने नियत कर्म करें तथा आखिर में निर्गुण बनकर परम ब्रह्म में विलीन हो सके ! परंतु अक्सर प्राणी अपने विवेक का प्रयोग प्रकृति के अवगुणों के प्रभाव में आकर अपनी आत्मा की मुक्ति के लिए भी नियत कर्मों को नहीं करता है ! परिवार के प्रति कर्तव्य में उसकी जिम्मेवारी है कि वह अपने परिवार का भरण पोषण सत मार्ग पर चलते हुए करें और अपनी संतान को अच्छे संस्कार प्रदान करके उन्हें समाज का एक स्वस्थ मानसिकता वाला हिस्सा बनाएं, जिससे उसकी संतान अच्छे संस्कारों के द्वारा जीवन जी कर समाज काऔर स्वयं का उत्थान कर सके ! इसके बाद तीसरा और आखिरी कर्तव्य समाज के प्रति होता है जिसमें उसके द्वारा उस से आशा की जाती है कि वह संसार के हर प्राणी के प्रति संवेदना रखें और उनकी भलाई के लिए कार्य करें ! क्योंकि मनुष्य के अंदर विद्यमान आत्मा ईश्वर का अंश है और पूरा ब्रह्मांड ईश्वर का ही स्वरूप है ! इसलिए संसार का हर प्राणी ईश्वर का ही अंश है इसलिए इस प्रकार हर प्राणी का संबंध एक दूसरे प्रीति है इसको देखते हुए पूरा संसार ही एक परिवार है इसलिए सनातन धर्म में वसुधैव कुटुंबकम का नारा दिया जाता है !
महाभारत के युद्ध में मोह में फस कर अर्जुन अपने स्वयं के परिवार और समाज के प्रति नियत कर्मों से विमुख हो रहा था ! जिनके कारण वह मोह रूपी पाप में लिप्त होकर कौरवों के विरुद्ध युद्ध करने से मना कर रहा था ! यदि भगवान उस समय उसे नियत कर्मों की व्याख्या करके उसके अज्ञान को दूर ना करते तो कौरव उसी प्रकार अपने पाप कर्मों के द्वारा समाज को प्रताड़ित करते रहते हैं जैसा उन्होंने पांडवों के साथ किया था और इसी प्रकार के पाप को समाज में बढ़ावा देते !जिससे समाज के हर प्राणी में विद्यमान ईश्वर रूपी आत्मा दुखी होकर अपने पथ से भटक कर दोबारा प्रतिशोध के रूप में पाप कर्मों में लिप्त होकर जीवन मरण के चक्कर में पड़ जाती !
अध्यात्म के अनुसार हर मनुष्य अपने जीवन में महाभारत युद्ध लड़ रहा है जिसमें उसे अर्जुन जैसे अज्ञान से निकलकर अपने नियत कर्मों को पूरा करते हुए अपने तथा समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारियों को पूरा करते हुए संसार के जीवन मरण रूपी चक्र से मुक्ति पानी चाहिए !इसलिए रामचरितमानस में भी कहा गया है की----
बड़े भाग मानुष तन पावा
इसलिए विवेक रूपी बहुमूल्य वस्तु के साथ मनुष्य को अपने मनुष्य योनि की प्राप्ति के प्रमुख उद्देश्य को अपने लिए निर्देशित कर्मों को करके पूरा करना चाहिए !