अगर दलित हित ही हाथरस पर आंदोलनात्मक राजनीति करने वालों का उद्देश्य है‚ तो फिर उन्हें ऐसी अन्य घटनाओं पर भी इसी तरह दृष्टि डालनी चाहिए। अगर राजस्थान में दलित उत्पीड़न पर चुप्पी साध लें या फिर उप्र के बलरामपुर की घटना पर ही विरोध की खानापूर्ति करने लगें‚ तो इनकी नीयत पर सवाल खड़ा होना स्वाभाविक है। अगर आरोपित की जाति और धर्म को देखकर विरोध की राजनीति की जाएगी‚ तो इससे अंततः सामाजिक उलझाव ही पैदा होगा।
उत्तर प्रदेश के हाथरस में कथित तौर पर रेप का शिकार होने वाली युवती को इंसाफ दिलाने का मुद्दा राजनीतिक रूप से जोर पकड़ता हुआ दिख रहा है। इस मामले को लेकर देश के लगभग सभी राज्यों के अलावा विदेशों में भी विरोध प्रदर्शन हुए हैं। अमरीका, ब्रिटेन, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया, संयुक्त अरब अमीरात, हॉन्गकॉन्ग, जापान, नेपाल, नीदरलैंड, स्वीडन और स्लोवेनिया जैसे देशों में ये विरोध-प्रदर्शन हुए हैं। विरोध प्रदर्शन के दौरान मृत दलित युवती के लिए इंसाफ की मांग की गई है।
अधिकतर सामाजिक संगठन इसे हिंदू बनाम दलित बनाने की काेशिश कर रहे हैं, कांग्रेस , वामपंथी भी इसे मौन समर्थन दे रहे हैं। कांग्रेस नेता व पूर्व सांसद उदित राज ने ठाकुरों की पंचायत पर भाजपा और आरएसएस पर निशाना साधा है। उदित राज ने एक ट्वीट कर कहा है कि आरएसएस-बीजेपी कहती नहीं थकती कि दलित हिंदू हैं। हाथरस में ठाकुरों को दलित पीड़ित का साथ होना चाहिए था, उल्टा मारपीट और पंचायत कर रहे हैं। अगर दलित हिंदू होते तो क्या ऐसा करते?
RSS / BJP कहते नही थकते की दलित हिंदू हैं । हाथरस में ठाकुरों को दलित पीड़ित का साथ होना चाहिए था उल्टा मार -पिट & पंचायत कर रहे हैं । अगर दलित हिंदू होते तो क्या ऐसा करते?
— Dr. Udit Raj (@Dr_Uditraj) October 4, 2020
उत्तर प्रदेश की योगी सरकार ने हाथरस कांड की जांच के लिए पहले एसआईटी टीम का गठन कर दिया था‚ लेकिन अब उसने सीबीआई जांच की सिफारिश कर दी है। प्रदेश प्रशासन के लोग भले ही मामले की निष्पक्ष जांच करते‚ लेकिन उस पर हर कोई विश्वास करता‚ यह कहना कठिन था। ऐसे में योगी सरकार का यह फैसला स्वागत योग्य है‚ क्योंकि शासक का उद्देश्य शासन करना ही नहीं‚ जनता की नजरों में निष्पक्ष दिखना भी जरूरी होता है। उम्मीद थी कि सभी पक्ष इसका स्वागत करेंगे‚ लेकिन ऐसा होता दिख नहीं रहा है।
अब भी कुछ हलकों में न्यायिक जांच की मांग उठ रही है। अगर सरकार का उद्देश्य कुछ छिपाना न हो‚ तो उसे जांच एजेंसी को लेकर कोई चिंता नहीं करनी चाहिए। अगर चयनित आधार पर राजनीति होती है‚ तो माना जा सकता है कि उसके पीछे किन्हीं ताक़तों का कोई न कोई एजेंडा है। अगर इस आंदोलन के समय पर नजर डालें‚ तो दो घटनाओं पर सहसा ध्यान जाता है। एक सुशांत सिंह राजपूत की मौत का मामला‚ तो दूसरा बिहार विधान सभा चुनाव। हाथरस के जरिये ये ताक़तें इसका किसी न किसी तरह से लाभ उठाना चाहेंगी।
अगर दलित हित ही हाथरस पर आंदोलनात्मक राजनीति करने वालों का उद्देश्य है‚ तो फिर उन्हें ऐसी अन्य घटनाओं पर भी इसी तरह दृष्टि डालनी चाहिए। अगर राजस्थान में दलित उत्पीड़न पर चुप्पी साध लें या फिर उप्र के बलरामपुर की घटना पर ही विरोध की खानापूर्ति करने लगें‚ तो इनकी नीयत पर सवाल खड़ा होना स्वाभाविक है। अगर आरोपित की जाति और धर्म को देखकर विरोध की राजनीति की जाएगी‚ तो इससे अंततः सामाजिक उलझाव ही पैदा होगा।
मीडिया में भले ही हाथरस प्रकरण छाया है‚ लेकिन जिस प्रकार सोशल मीडिया में बलरामपुर की घटना पर चर्चा चल रही है‚ वह बदलते समाज के मानस को अभिव्यक्ति कर देती है। यह ऐसी प्रवृत्ति है‚ जो दलितों पर समग्रता के बजाय चयनित राजनीति करने वालों पर उल्टी भी पड सकती है। समय आ गया है कि बदलते संदर्भ में दलित राजनीति की दशा–दिशा पर नये सिरे से विचार–विमर्श हो।