एकांत और अकेला इन दोनों शब्दों का तात्पर्य शाब्दिक दृष्टि से एक ही है परंतु भावनात्मक रूप से अकेलापन नकारात्मक तथा एकांत सकारात्मक रूप में प्रयुक्त किया जाता है! मनुष्य के शरीर में 5 कर्म इंद्रियां तथा पांच ज्ञानेंद्रिय होती हैंऔर पांच ही इंद्रिय विषय-इच्छा, द्वेष, सुख-दुख, संघात इत्यादि ! जिनके द्वारा वह इंद्रिय तृप्ति करता है! किसी वस्तु को देखने परमनुष्य को उसको प्राप्त करने कीइच्छा जागृत होती है! फिर वह प्रयास करता है उसे पाने काऔर यदि नहीं पा सकता है तो उसमें क्रोध जागृत होने लगता है जिसकी परिणीति अकेलेपनऔरनिराशा में होती है! परंतु जिस मनुष्य नेअपनी इंद्रियों को नियंत्रण में कर लिया है वह हर समयऔर हर स्थान पर शांति का अनुभव करते हुए एकांत का अनुभव करते हुए ईश्वर ध्यान में लीन रहता है !

आज के भौतिकवादी युग में अक्सर सुनने में आता है की बहुत से बुजुर्ग अपनी संतान द्वारा त्यागे जाने पर दुखी होकर स्वयं को अकेला महसूस करते हैं। और यदि उनकी अपनी इंद्रियों पर नियंत्रण है तो वहइस स्थिति में जहां पर भी रहते हैं वहां पर एकांत का अनुभव करते हुए शांतिपूर्ण जीवन निर्वाह करते हैं! अकेलेपन के दुख के कारण जब उनकी इच्छा पूर्ति नहीं होती है तो उनमें क्रोध जागृत होता है तथा इसी क्रोध, लोभ और मोह की स्थिति में दुखी होकर अकेला महसूस करते हुएअंत को प्राप्त होते है! इस प्रकार प्रकार मनुष्य जीवन का परम लक्ष्य मोक्ष भी उन्हें प्राप्त नहीं होता है! इस प्रकार वे दोबारा भवसागर में फंसकर संसार की विभिन्न योनियों में कर्म अनुसार जन्म लेते है! गीता के अनुसार संसार की 84 लाख योनियों में केवल मनुष्य योनि में ही विवेक प्राप्त होता है जिसके द्वारा वह ज्ञान मर्ग पर चलकर ईश्वर भक्ति करता हुआ मोक्ष प्राप्त कर सकता है !
जीवन यात्रा को सुगमता से पूर्ण करने और जीवन के परम उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए सनातन धर्म में मनुष्य जीवन को चार आश्रमों में विभाजित किया गया है! पहले 25 वर्ष तक ब्रह्मचर्य धारण करके शिक्षा ग्रहण करनी चाहिए जिससे वह जीवन के लिए स्वयं को तैयार कर सके ! इसके उपरांत 25 से 50 वर्ष तक जीवन के नियत कर्म जैसे परिवार का पालन पोषण तथा समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारियां निभाना ! फिर 50 से 75 साल तक बाणप्रस्थ केनियमों को निभाते हुए धीरे-धीरे संसार सेअलग होना तथा स्वयं को ईश्वर प्राप्ति या मोक्ष के लिए तैयार करना ! 75 से जीवन के अंत तक एक सन्यासी की तरह जीवन जीना ! आज के युग मॅसंन्यास के लिए वन में जाने की आवश्यकता नहीं है! मनुष्यअपनी इच्छाओं पर नियंत्रण करते हुए परिवार के साथ रह कर भी एक सन्यासी का जीवन व्यतीत कर सकता है! इस प्रकार वह सुगमता से अपना जीवन निर्वाह करता हुआ मोक्ष प्राप्त कर सकता है ! परंतु अक्सर मनुष्यअपनी इंद्रियों के जाल में फंसकर जीवन के अंत तक इंद्रिय तृप्ति में ही लगा रहता हैऔर जब यह इंद्रिय तृप्ति नहीं होती है तो स्वयं को अकेला और नीरास महसूस करता हुआ अंत को प्राप्त होता है !
इसको देखते हुए मनुष्य को सनातन धर्म की आश्रम व्यवस्था को अपनाना चाहिए और इंद्रियों पर नियंत्रण करते स्वयं को अकेले के स्थान पर एकांत महसूस करना चाहिए ! प्रकार ईश्वरभक्ति में लीन होते हुए शांति और संतुष्टि का अनुभव करते हुए मोक्ष प्राप्त करना चाहिए जो मनुष्य जीवन कापरम लक्ष्य है !