मायावती को यूपी की राजनीति में अभी खारिज करना भूल ही होगी !

NewsBharati    04-Dec-2021   
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मायावती का कोर वोट आज भी उनके साथ खड़ा है वह किसी भी हालत में भाजपा या सपा के साथ नहीं जा रहा है, प्रदेश के कुल दलित वोट में लगभग 70 फीसदी हिस्सा जाटव वाेटर का है, आज भी उसकी बसपा पर आस्था कायम है। मायावती बड़े सलीके से अपने कई पैंतरे चल रही हैं। जिसके चलते बसपा की चुनौती की अनदेखी अब नहीं की जा सकती।

उत्तर प्रदेश की चुनावी तस्वीर साफ होने लगी है तमाम चुनावी सर्वे में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) और समाजवादी पार्टी (सपा) के बाद बहुजन समाज पार्टी (बसपा) को नंबर तीन की पोजिशन दी जा रही हैं। कांग्रेस को सबसे कमजोर राष्ट्रीय दल हर चुनावी सर्वे में बताया जा रहा हैं। चुनाव पूर्व सर्वेक्षणों में भी बसपा के बहुत खराब प्रदर्शन का अनुमान लगाया जा रहा है।

जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी के असिस्टेंट प्रोफेसर और बहुजन स्वराज अभियान के संयोजक डॉ. महेंद्र प्रताप राणा का मानना है कि इन चुनावों में मायावती को खारिज करने वाले भारी मुगालते में हैं। बसपा सबको चौंका सकती है। बीते विधानसभा और लोकसभा के चुनाव परिणामों को देखे तो यह साबित होता है कि वोट हासिल करने के मामले में भाजपा के बाद बसपा का स्थान है। बड़ी लहरों के बीच में भी बसपा का वोट शेयर लगातार एकसा ही रहा है। वर्ष 2017 के चुनावों में भाजपा के बाद सबसे अधिक 22.7 प्रतिशत वोट बसपा को मिले थे। जबकि सपा को उस चुनाव में 21.8 प्रतिशत वोट मिले थे। इसी प्रकार वर्ष 2019 में हुए लोकसभा चुनावों में भी बसपा को 19.26 प्रतिशत वोट मिलने के साथ दस लोकसभा सीटों पर जीत हासिल हुई थी। जबकि इस चुनाव में सपा को 17.96 फीसदी वोट हासिल हुए और वह पांच सीटों पर ही जीत हासिल कर सकी थी।
 

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पुराने आंकड़ों को भी देखे तो वर्ष 2012 के असेंबली इलेक्शंस में बसपा का वोट शेयर 25 फीसदी से थोड़ा ऊपर रहा था। यह पार्टी को 2007 के चुनावों में मिले 30 फीसदी से वोटों से 5 फीसदी ज्यादा था। हालांकि, पांच फीसदी का फर्क यह साबित नहीं कर पाया कि किस तरह से सपा को इतनी जबरदस्त जीत के साथ 224 सीटें मिलीं। बसपा को मिलने वाली सीटों की संख्या 126 घटकर 80 पर आ गई। 2009 के लोकसभा चुनावों में पार्टी को 27 फीसदी वोट और 20 सीटें मिली थीं। देखने वाली बात यह है कि वोट शेयर के संदर्भ में बसपा लगातार एक जैसा प्रदर्शन कर रही है।

इसके बावजूद माना जा रहा है कि इस बार के मुकाबले में बसपा बाहर है और इस बार मायावती के वोट शेयरों में भारी गिरावट होगी। पिछले कई चुनावों से उनका वोट शेयर 20 फीसदी के आसपास रहता है। लेकिन इस बार इसके आधा रह जाने का अनुमान लगाया जा रहा है। चुनाव पूर्व सर्वेक्षणों में भी बसपा के बहुत खराब प्रदर्शन का अनुमान लगाया जा रहा है। तभी सारी पार्टियों की नजर बसपा के वोट पर है। पर बड़ा सवाल यह है कि बसपा का वोट किसके साथ जाएगा? यह यक्ष प्रश्न है और उत्तर प्रदेश चुनाव में यह फैक्टर सबसे निर्णायक होगा कि बसपा का वोट किसके साथ जाता है। भाजपा और समाजवादी पार्टी का प्रयास है कि दलित खास कर जाटव वोट काे अपने साथ जोड़ा जाए। समाजवादी पार्टी का प्रयास अपने यादव-मुस्लिम समीकरण में जाटव वोट को जोड़ने का है।

सपा ने छोटी-छोटी जितनी पार्टियों से तालमेल किया है वो सारी पार्टियां ऐसी ही हैं। ओमप्रकाश राजभर, संजय चौहान, केशव देव मौर्य और कृष्णा पटेल ऐसे ही जातीय समूहों का प्रतिनिधित्व करते हैं। राजभर मतदाताओं के बीच ओमप्रकाश राजभर की सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी का अच्छा आधार है और पूर्वी उत्तर प्रदेश की 20 सीटों पर वे प्रभावी हो सकते हैं। इसी तरह मध्य उत्तर प्रदेश में कई क्षेत्रों में कुर्मी मतदाताओं के बीच कृष्णा पटेल के प्रति सद्भाव है। केशव देव मौर्य भी सीमित ही सही लेकिन कोईरी मतदाताओं में असर रखते हैं। संजय चौहान का नोनिया मतदाताओं में ठीक-ठाक असर है। बसपा से आए दलित-पिछड़े नेताओं को अखिलेश यादव ने महत्व भी दिया है और उनके सहारे बसपा के वोट में सेंध लगाने का प्रयास कर रहे हैं।

बहुजन स्वराज अभियान के संयोजक डॉ. महेंद्र प्रताप राणा का मानना है कि पारंपरिक रूप से कमजोर व वंचित तबके का वोट सपा के साथ नहीं जाता है। इसे और बारीकी से देखें तो सपा और बसपा का कोर वोट एक-दूसरे के प्रति अविश्वास रखता है। तभी पिछले लोकसभा चुनाव में साथ लड़ कर भी दोनों पार्टियां कोई चमत्कार नहीं कर सकीं क्योंकि दोनों का वोट एक-दूसरे को ट्रांसफर नहीं हुआ। तीन दशक पहले जब मुलायम सिंह और मायावती साथ आए थे तब भी विधानसभा चुनाव में दोनों पार्टियां दो सौ सीट के आंकड़े तक नहीं पहुंच पाई थीं। डॉ. महेंद्र प्रताप राणा का मत है कि मायावती का कोर वोट आज भी उनके साथ खड़ा है वह किसी भी हालत में भाजपा या सपा के साथ नहीं जा रहा है, प्रदेश के कुल दलित वोट में लगभग 70 फीसदी हिस्सा जाटव वाेटर का है, आज भी उसकी बसपा पर आस्था कायम है।
इस बार पश्चिमी उत्तर प्रदेश (गन्ना बेल्ट) में किसान आंदोलन के असर और आरएलडी और समाजवादी पार्टी के गठजोड़ से बीजेपी के लिए राह आसान नही रही। किसान आंदोलन का सबसे ज्यादा असर पश्चिमी उत्तर प्रदेश में ही हुआ है। 2013 में मुजफ्फरनगर में हुए दंगों के बाद सामाजिक समीकरण बदल गए थे। लेकिन गैर-बीजेपी दलों को लगता है कि अब जाटों और मुसलमानों के बीच दूरी कम हुई है। जमीन पर यह दिखता भी है कि आपसी कटुता कम हुई है। किसान आंदोलन के नाम पर सभी एक साथ आए हैं। कुल मिलाकर, यह निश्चित है कि जाट मतदाताओं का एक बड़ा वर्ग बीजेपी सरकार से नाराज है और वह आरएलडी की तरफ देख रहा है। राष्ट्रीय लोक दल उसकी स्वाभाविक पार्टी रही है।

लेकिन गहराई से देखने पर यह बात साफ हो जाती है कि इस नाराजगी के पीछे केवल किसान आंदोलन नहीं है। वास्तव में चौधरी चरण सिंह किसानों के मसीहा थे और जाटों के एकमात्र सबसे बड़े नेता भी। 2014 में चौधरी चरण सिंह के पुत्र अजीत सिंह और पौत्र जयंत दोनों चुनाव हार गए। बीजेपी समर्थक होने के बावजूद जाटों के बड़े वर्ग को इन दोनों की हार का मलाल हुआ। 2019 में महा-गठबंधन होने के बाद चौधरी साहब के समर्थकों को लगता था कि इस बार अजीत सिंह और जयंत दोनों आसानी से जीत जाएंगे, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। अजीत सिंह की मृत्यु ने इस दर्द को और बढ़ा दिया। इस बीच कृषि कानून को लेकर सरकार के प्रति नाराजगी बढ़ी और वे सब आरएलडी के झंडे तले खड़े हो गए हैं। यही कारण है कि जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कृषि कानूनों को रद्द कर दिया, तब भी किसानों, विशेष रूप से जाट मतदाताओं के एक वर्ग में सरकार से नाराजगी कम नहीं हुई।
मुस्लिम मतदाता भी भी सब भूल कर आरएलडी और एसपी गठजोड़ की ओर आशा भरी निगाहों से देख रहा है। उसे लगता है कि अभी नहीं तो कभी नहीं। बीजेपी को हराने के लिए इससे बेहतर माहौल नहीं हो सकता। लेकिन मजबूती के बावजूद इस गठजोड़ को बीजेपी और बीएसपी से कड़ी चुनौती मिल रही है। डॉ. महेंद्र प्रताप राणा का मानना है कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जाटव समाज की आर्थिक - सामाजिक स्थिति काफी बेहतर है, वह मायावती का कोर वोट है और किसी भी हालत में वह कहीं और जाने वाला नहीं है। अगर मायावती इस क्षेत्र में मुस्लिम - दलित गठजाेड़ बनाने में सफल रही ताे नतीजे अलग हाेगे। मायावती बड़े सलीके से अपने कई पैतरे चल रही हैं। जिसके चलते बसपा की चुनौती की अनदेखी अब नहीं की जा सकती। यहीं नहीं मायावती सपा को पछाड़ कर भाजपा से मुकाबला करते दिख सकती हैं क्योंकि उनका समर्थक मतदाता अभी भी उनके साथ है और इस वोटर के रहते मायावती को यूपी की राजनीति में अभी खारिज करना भूल ही होगी ।