अंतिम समय की मनोस्थिति

NewsBharati    03-Aug-2020 13:15:49 PM   
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अध्यात्म मैं अंतिम समय की मनो स्थिति के दो विपरीत उदाहरण मिलते हैं | इनमें रामायण काल में गिद्ध राज जटायु तथा महाभारत काल से भीष्म पिता के उदाहरण है | जटायु अपने अंतिम समय में मृत्यु को खुशी खुशी गले लगाने के लिए तैयार थे और उसका इंतजार कर रहे थे | परंतु वहीं पर भीष्म अपने अंतिम समय में अत्यंत मानसिक पीड़ा से व्यथित थे | ज्ञात होता है कि जिस समय रावण सीता जी का हरण करके ले जा रहा था उस समय जटायु ने एक अनजान असहाय नारी की रक्षा करने के लिए उस समय के महाशक्तिशाली रावण से मुकाबला किया | जिसमें उन्हें गंभीर चोट आई जो उनकी मृत्यु का कारण बनी |
  
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वहीं पर भीष्म अपने परिवार के सबसे वरिष्ठ बुजुर्ग होने के बावजूद उन्होंने अपने ही कुल की वधू को भरे दरबार में निर्वस्त्र होते देखते रहे और उन्होंने इस कृत्य के विरुद्ध उस समय कोई आवाज नहीं उठाई | जबकि वह हर प्रकार से समर्थ थे और चाहते तो इसको रोक सकते थे | परंतु उन्होंने जटायु की तरह इसे रोकने का प्रयास नहीं किया | जिसके कारण वह अपने अंतिम समय में पूरे 6 महीने तक भारी मानसिक तथा शारीरिक पीड़ा मैं अपनी मृत्यु का इंतजार करते रहे | जबकि जटायु मृत्यु को उत्सव के रूप में मना रहे थे तथा वे पूर्णतया निश्चिंत होकर संसार को छोड़ने की तैयारी कर रहे थे |
 
महाभारत के वर्णन के अनुसार भीष्म को बाण लगे हुए थे जिनके कारण उनको भारी पीड़ा हो रही थी परंतु दार्शनिकों के अनुसार यह पीड़ा तीरों की नहीं बल्कि यह पीड़ा उन यादों की थी जिसमें उन्होंने अपना नियत तथा नैतिक दायित्व पूरा नहीं किया | उनकी आंखों के सामने उनके परिवार के लोग एक दूसरे को तरह-तरह के धोखे देते रहे जुआ जैसे दुष्कर्म के द्वारा परिवार में भारी क्लेश उत्पन्न करते रहे तथा परिवार की स्त्रियों की जगह जगह इज्जत उतारने का प्रयास करते रहे | परंतु फिर भी भीष्म हस्तिनापुर के राज सिंहासन के प्रति शपथ तथा वफादारी का बहाना बनाकर अपनी निष्क्रियता को सही ठहराते रहे |
 
परंतु यह अटल सत्य है के अनैतिक तथा गलत कार्यों तथा इनके प्रति उदासीनता के भाव को किसी भी स्थिति में सही नहीं ठहराया जा सकता | और इसका सबसे बड़ा दुष्प्रभाव मनुष्य को अपने अंतिम समय में भोगना पड़ता है | जीवन के स्वस्थ समय में मनुष्य अपने तर्क वितर्क से गलत को भी सही ठहराता रहता है | परंतु अंतिम समय में जब उसकी शक्ति क्षीण हो जाती है और उसका नियंत्रण स्वयं के ऊपर भी नहीं रहता है तब उसके अनैतिक कर्म तथा उनके प्रति दिखाई गई उदासीनता भारी पीड़ा के रूप में उसको व्यथित करती है | वहीं पर जीवन में सत्य तथा नैतिकता का साथ देने वाले व्यक्ति को अपने अंत समय में परम आनंद एवं शांति की अनुभूति होती है | जैसा कि जटायु एक पक्षी होते हुए भी कर रहे थे | ऐसा व्यक्ति अपनी मृत्यु को भी खुशी खुशी गले लगाता है परंतु अनैतिक कर्म करने वाला व्यक्ति अनजाने भय से मृत्यु के समय भारी मानसिक पीड़ा का सामना करता है |
 
उपरोक्त दोनों उदाहरणों से यह साफ हो जाता है कि मनुष्य को जीवन में अनैतिक तथा बुरे कर्मों को ना तो करना चाहिए और ना ही उनका साथ देना चाहिए जिससे अंत समय में वह साफ तथा सरल हृदय से इस संसार को छोड़ सकेजैसा कि जटायु ने किया | 

Shivdhan Singh

Service - Appointed as a commissioned officer in the Indian Army in 1971 and retired as a Colonel in 2008! Participated in the Sri Lankan and Kargil War. After retirement, he was appointed by Delhi High Court at the post of Special Metropolis Magistrate Class One till the age of 65 years. This post does not pay any remuneration and is considered as social service!

Independent journalism - Due to the influence of nationalist ideology from the time of college education, special attention was paid to national security! Hence after retirement, he started writing independent articles in Hindi press from 2010 in which the main focus is on national security of the country.