भारत की राजधानी में किसानों का प्रचंड आंदोलन चल रहा है। किसान कृषि सुधार से जुड़े तीनों कानूनों का विरोध कर रहे हैं।दिल्ली में रहने वाले और बाहर से स्वास्थय संबंधी जांच के लिये आने वाले भारतीय दिल्ली के बॉर्डर प्रदर्शन के चलते सील होने की वजह से परेशान है। लेकिन कमाल की बात यह है कि किसानों की मुख्य मांग, जो कि न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) से जुड़ी है, का उल्लेख उन तीनों कानूनों में कहीं नहीं है, जिनका वे विरोध कर रहे है ।तो फिर यह विरोध हो किस बात पर रहा है और क्यों हो रहा है? इस सवाल का जवाब पाना सचमुच कठिन है। इन प्रदर्शनों से जुड़ी कुछ सहायक घटनाएं इन सवालों को और भी कठिन बना रही हैं। जैसे, दिल्ली में हो रहे किसानों के प्रदर्शन को समर्थन देने वाले कुछ समूहों की सूची में -मुस्लिम संगठन "यूनाइटेड अगेन्स्ट हेट" (UAH), उत्तर प्रदेश के नए उभरते दलित नेता चंद्रशेखर आजाद, JNU के वामपंथी छात्र संगठन इत्यादि शामिल हैं।चंदरशेखर और JNU के वामपंथी छात्रों की कहानी तो देश कई मौकों पर देखता ही रहा है।
लेकिन यूनाइटेड अगेन्स्ट हेट वह संगठन है जिसका गठन खालिद सैफी ने किया है। खालिद सैफी दिल्ली दंगों में मुसलमानों की भीड़ को उकसाने का आरोपी है। इस के झंडे तले मस्जिद से प्रदर्शनकारियों के लिए खाना, गर्म कपड़े और दूसरे सामान जुटा रहे हैं। और इन सबसे ऊपर कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो भी कनाडा से पंजाब के किसानों की चिंता में दुबले हो रहे हैं। कनाडा की राजनीति में खालिस्तान समर्थक सिक्खों की भूमिका किसी से छिपी नहीं है।
दिल्ली में प्रदर्शनों के बीच ऐसे नेता भी नजर आ रहे हैं, जो शाहीन बाग के प्रदर्शन में दिखते थे। अब UAH, आजाद, JNU, खालिस्तान, शाहीन बाग और कनाडा किस तरह पंजाब-हरियाणा के किसानों की चिंताओं से जुड़े हैं, इसका जवाब समझ से परे मालूम होता है।
इसलिए इस प्रदर्शन के औचित्य को छोड़कर इस कथित किसान आंदोलन की समीक्षा उसकी मांगों के लिहाज से करना उचित लगता है। मुख्य मांग एमएसपी को कानूनी बनाने की है। तो पहली बात तो यही है कि जब मौजूदा कानूनों से एमएसपी का कोई लेना-देना ही नहीं है तो एमएसपी का कानून बनाने के लिए कृषि सुधार से जुड़े तीनों कानूनों को वापस लेने की कोई आवश्यकता किस तरह है ! इसका मतलब यह हुआ कि ये दोनों मुद्दे अलग-अलग हैं।
पहला मुद्दा है APMC कानून में सुधार का, जिससे किसानों को अपना माल कहीं भी बेचने की आजादी मिल गई है। और इससे पंजाब सबसे ज्यादा उद्वेलित है। कारण बहुत साफ है। देश ही नहीं, पूरी दुनिया में किसानों से उनकी फसल पर उतना टैक्स नहीं वसूला जाता, जितना पंजाब में वसूला जाता है। पंजाब जानता है कि इस कानून के कारण उसकी मंडियां पूरी तरह से गैर प्रतिस्पर्द्धी हो जाएंगी। बजाए मंडी टैक्स को दूसरे राज्यों की तरह 1-1.5 प्रतिशत पर लाने के पंजाब सरकार मंडियों में वसूले जाने वाले 8.5 प्रतिशत टैक्स को बचाने में लगी है।
कांग्रेस और अकाली दल का तर्क है कि केंद्र सरकार के कानून के कारण मंडियां खत्म हो जाएंगी। यह सही है। लेकिन इसका उपाय यह नहीं हो सकता कि केंद्र के कानून को ही खत्म कर दिया जाए। बल्कि इसका उपाय यह हो सकता है कि पंजाब अपने मंडी के टैक्स देश के दूसरे राज्यों के स्तर पर लाए। लेकिन ऐसा करने से पंजाब की मजबूत आढ़तिया लॉबी को बैठे-बिठाए मिलने वाला 3% कमीशन और सरकार को ग्रामीण विकास के नाम पर मिलने वाला 3% राजस्व का रास्ता बंद हो जाएगा। इसलिए किसानों को यह भय दिखाया जा रहा है कि केंद्र के कानून से मंडिया गैर प्रतिस्पर्द्धी हो कर धीरे-धीरे बंद हो जाएंगी और फिर सरकार एमएसपी से खरीद बंद कर देगी।
यह हास्यास्पद है। सरकारी खरीद से मंडियों का कोई लेना-देना नहीं। फिर इस डर का आधार क्या है? डर का आधार यह है कि मंडियों में होने वाली सरकारी खरीद आढ़तियों के माध्यम से होती है। खरीद नाफेड और एफसीआई जैसी सरकारी एजेंसियां करती हैं, ट्रांसपोर्ट, वेयरहाउसिंग और तमाम दूसरी सिरदर्दी इन्हीं एजेंसियों की है, लेकिन आढ़तियों को कमीशन मिल जाता है। अब यदि मंडी नहीं होगी, तो खरीद का कमीशन कहां जाएगा। असल झगड़ा इसी कमीशन का है।
अब दूसरी बात, MSP की। पंजाब सरकार ने केंद्र के कानून का विरोध कर रहे किसानों को खुश करने के लिए अपने कानून बनाए हैं। इनमें से एक कानून में कहा गया है कि कोई भी यदि एमएसपी से कम भाव पर किसानों से खरीद करता है, तो उसे 3 साल तक की जेल होगी। प्रदर्शनकारी केंद्र से भी इसी तरह के कानून की मांग कर रहे हैं। अब इस सवाल का जवाब तो ये पंजाब के किसान ही दे सकते हैं कि जब पंजाब में यह कानून बन ही गया है तो वह केंद्र से क्यों इसकी मांग कर रहे हैं। लेकिन इतना तय है कि पंजाब में इस कानून का कोई महत्व नहीं है क्योंकि वहां के किसानों की पूरी फसल सरकार एमएसपी पर खरीद लेती है।
रही बात देश के दूसरे हिस्सों में इसी कानून को लागू करने की, तो किसानों के लिए ऐसा कोई भी कानून ऐसी तबाही ला सकता है, जिसकी किसी ने कल्पना तक नहीं की होगी। कृषि कमोडिटी के भाव का पूरा आधार उसकी गुणवत्ता होती है। सरकार की संस्था एफएसएसएआई का काम हर कमोडिटी (फसल) में मानक गुणवत्ता का निर्धारण करना है। पूंजी बाजार नियामक सेबी यह सुनिश्चित करता है कि कृषि कमोडिटी वायदा बाजार में कारोबार होने वाली हर फसल एफएसएसएआई के गुणवत्ता मानकों के अनुरूप हो।
लेकिन मंडियों में किसान जो फसल लाता है उसके गुणवत्ता की कोई गारंटी नहीं होती। एक ही मंडी में एक किसान की फसल का भाव 3000 रुपये प्रति क्विंटल रुपये लगता है और दूसरे किसान की वही फसल 3500 के भाव पर बिकती है। कारण सिर्फ उन दोनों फसलों में नमी, टूटे दाने, बाहर तत्व, खराब दाने इत्यादि की मात्रा में अंतर होता है। कोई फसल हार्वेस्ट के समय 14-16% नमी लिए होती है जो कि 6 महीने बाद 8% नमी वाली हो जाती है। मशीन से हार्वेस्ट के समय किसी फसल में 4% तक बाहरी तत्व हो सकते हैं, जो कि क्लीनिंग के बाद 1% तक किए जा सकते हैं।
FCI, नाफेड जैसी एजेंसियों को करदाताओं के पैसे से फसल खरीदनी होती है, इसलिए वे हर गुणवत्ता वाली फसल को एमएसपी दे सकते हैं। लेकिन यदि सरकार व्यापारियों के लिए अनिवार्य कर देती है कि वे एमएसपी के नीचे फसल नहीं खरीदेंगे, तो व्यापारी देश में किसानों से फसल खरीदने के बजाए विदेश से खरीदना पसंद करेंगे, जिसमें उन्हें गुणवत्ता की गारंटी मिलेगी और माल सस्ता मिलेगा। देश का किसान अपनी सारी फसल नालियों में बहाने के लिए मजबूर होगा।
इसलिए न तो केंद्र सरकार द्वारा किया गया APMC कानून में बदलाव किसानों के हितों के खिलाफ है और न ही पंजाब सरकार द्वारा लाया गया MSP का कानून किसानों के हित में है। यदि केंद्र सरकार इन प्रदर्शनों के दबाव में अपने कानून वापस लेती है, तो यह भारतीय कृषि और किसानों के लिए दुर्भाग्य की पराकाष्ठा होगी। दिल्ली में चल रहे कथित किसान प्रदर्शनो के औचित्य की समीक्षा जवाबों से ज्यादा सवाल ही खड़े कर रही है। दिल्ली में रहने वालों और स्वास्थ्य सुविधाओं केलिये दिल्ली आने वालों को प्रजातंत्र में दिये अधिकारों का हनन इन प्रदर्शनों के माध्यम से होना चिंतित करने वाला है। माननीय न्यायालय का इस बारे मौन भी समझ से परे है।मानवीय पहलू को नजरअंदाज कर ज्यादा लंबे समय तक इन प्रदर्शनों का चलना देश में प्रजा तंत्र के लिये घातक साबित होगा।